श्री वार्ष्णेय महाविद्यालय को संचालित करने वाली बारहसैनी कालिज सभा की कार्य समिति ने वर्षों पूर्व एक प्रस्ताव पारित कर अलीगढ़ में अपने आराध्यदेव प्रातः स्मरणीय एवं वन्दनीय भगवान वार्ष्णेय योगीराज श्रीकृष्ण एवं वार्ष्णेय कुलप्रवर्तक वृष्णिवंशी श्री अक्रूर जी महाराज एवं अन्य देवी देवताओं का एक भव्य तथा दर्शनीय मन्दिर-निर्माण का सत्संकल्प लिया था। एक ऐसा कलापूर्ण देवस्थल जो अपने आप में अलौकिक हो व जिसके माध्यम से भारतीय धर्म-साधना की सम्यक् व्यवस्था हो व जिसके फलस्वरूप विविधता में एकता एवं सत्य का साक्षात्कार कर जीवन-रसामृत की उपलब्धि हो सके और तदर्थ भारतीय संस्कृति तथा दर्शन के प्रमुख केन्द्र के रूप में उसके विकास के लिए मार्ग प्रशस्त हो सके । जहाँ सांस्कृतिक, धार्मिक एवं  आध्यात्मिक ज्ञान के अर्जन, प्रसार एवं प्रोत्साहन हेतु सृजन, परीक्षण, अध्यापन, कीर्तन, सामूहिक कथा, उपदेश, प्रार्थना, सत्संग, प्रवचन, यज्ञ, उत्सव, प्राणायाम और योग साधना आदि की सम्यक् व्यवस्था हो। कार्य समिति का संकल्प था कि यह मन्दिर ऐसे देवस्थल के रूप में विकसित हो, जो मात्र घण्टा, शंख बजाने और आरती उतारने तक ही सीमित न हो, वरन् जहाँ प्रतिष्ठापित श्रीविग्रहों की भव्य एवं अलौकिक प्रतिमाएँ कोटि-कोटि गृहस्थियों व साधकों को आत्मपरिष्कार एवं आत्मबोध के सन्मार्ग पर निरन्तर अग्रसर रहने हेतु सन्देश और निर्देश देने तथा पथ-प्रदर्शन करने में सक्षम हो। यही नहीं यह मन्दिर सम्पूर्ण जनमानस में विशेष रूप से युवा वर्ग में श्रद्धा, विनय, अनुशासन, स्वाध्याय, संस्कार, सेवा, समर्पण आदि सद्गुणों का संचार कर राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने हेतु अनुकूल वातावरण और आध्यात्म में अभिरुचि उत्पन्न करके शिक्षा को सांगोपाग् एवं जीवनोपयोगी बनाने में योग दे सके। साथ ही प्राकृतिक, आयुर्वेदिक एवं आधुनिक चिकित्सा का उपयोगी लाभ जन सामान्य तक पहुँचाने और वृद्ध जन-सेवा-केन्द्र एवं भारतीय दर्शन, वेदान्त व धर्मग्रन्थों के अध्ययन एवं शोध को प्रोत्साहन देने में सक्षम हो और इसके माध्यम से सम्पूर्ण जनमानस उत्कृष्ट चिन्तन, श्रेष्ठभावना, एवं सत्संकल्प के अमृतपान से अपने जीवन को धन्य कर सकें । 
 
इन्हीं सत्संकल्पों को मूर्तरूप प्रदान करने हेतु सम्पूर्ण वार्ष्णेय समाज पूर्णनिष्ठा, लगन और समर्पण भाव से मन्दिर - निर्माण हेतु तत्पर हुआ । वर्तमान में यह मन्दिर अपने भव्य एवं अलौकिक स्वरूप में दर्शनार्थियों का दर्शनीय स्थल, श्रद्धालुओं का तीर्थस्थल एवं साधकों का साधना स्थल बन गया है।
 
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी सं. 2057 तद्नुसार 16 अप्रैल 2000 दिन रविवार मन्दिर के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा जिस दिन भव्य एवं अलौकिक देव प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा नरवर संस्कृत महाविद्यालय के प्रमुख आचार्यों द्वारा पूर्ण विधि  विधान से सम्पन्न कराई गई। इससे एक दिन पूर्व हुआ देव प्रतिमाओं का नगर-भ्रमण तो अभूतपूर्व था। सम्पूर्ण महानगर राम और कृष्ण की सरस धुनों से सरावोर था। सभी श्रद्धालु एवं भक्तजन विशेष परिधानों (पुरुष वर्ग सफेद कुर्ता और धोती और पीत अंगवस्त्रम् तथा महिलाएँ पीली साड़ी) में एक अद्भुत छटा विखेर रहे थे। नगर के प्रमुख बाजारों की सजावट देखते ही बनती थी, सभी संस्थान दुल्हन की तरह सजे हुए थे। निश्चित ही देवप्रतिमाओं का नगर भ्रमण एवं प्राणप्रतिष्ठा समारोह दिव्य आनन्द की श्रीवृद्धि करने वाला था। 16 अप्रैल 2000 से प्रतिदिन प्रमुख आचार्यो द्वारा देव प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना सम्पादित की जा रही है और भक्तजन श्रीविग्रहों के दर्शन कर पुण्य प्राप्त कर रहे हैं । यही नहीं विशेष अवसरों और पर्वों पर  विशेष आयोजनों, फूलबंगला की मनमोहक सजावट, विद्वानों और सन्तों के प्रवचन और उनका संस्कारित सानिध्य तथा श्रीविग्रहों की चित्ताकर्षक पोषाक में दिव्य और अलौकिक दर्शनों से कोटि-कोटि श्रद्धालुओं के पुण्यों में श्रीवृद्धि होती है, परिणामस्वरूप मन्दिर की मान्यता और ख्याति में गुणात्मक अभिवृद्धि हो रही है। वस्तुतः यह मन्दिर श्रद्धालुओं और भक्तजनों का प्रमुख दर्शनीय स्थल बनता जा रहा है।
 
मन्दिर-निर्माण का प्रगति-विस्तार
 
आज जहाँ श्रीवार्ष्णेय महाविद्यालय का मानवीय कक्ष स्थित है, वहाँ उसके  मध्य में पहले एक सुन्दर शिवालय था। महाविद्यालय के विस्तार की योजना के अन्तर्गत कालिज सभा की कार्यसमिति ने भगवान शंकर की मूर्ति अन्यत्र प्रतिष्ठापित करने का निश्चय किया। इस प्रकार 20 अप्रैल 1964 को कालिज सभा के तत्कालीन अध्यक्ष श्रद्धेय मिश्रीलाल एड॰ की देखरेख में महाविद्यालय के सम्मुख जी॰टी॰रोड पर स्थित शिक्षक आवासों के पार्श्व में शिव मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। इस शुभ अवसर पर श्रीराधेश्याम कृष्णमूर्ति भट्टे वालों ने पाँच हजार ईटें देकर उक्त शिवालय के निर्माण में अपना सहयोग प्रदान किया ।
 
22 जुलाई, 1973 को कालिज सभा की नई कार्य समिति का निर्वाचन हुआ। नये सदस्यों ने अपने पूर्ववर्त्ती बन्धुओं के संकल्प को पूर्ण करने हेतु दिनांक 27 अगस्त, 1973 की अपनी प्रथम बैठक में श्री मदनलाल वार्ष्णेय पीतल वालों के संयोजकत्व में मन्दिर निर्माण उपसमिति का गठन किया। समिति के सदस्य सर्वश्री विशनचन्द्र ठेकेदार, चन्द्र किशोर वार्ष्णेय, कृष्ण कुमार ‘नवमान’, निर्मल कुमार बावरिया, किशोरीलाल वर्तन वाले, भीषम लाल वार्ष्णेय, भगवानदास ताले वाले, किशोरीलाल सर्राफ, रामबाबू वार्ष्णेय ‘विमल’, सालिगराम दलाल, हरीशंकर सर्राफ, प्रेमपाल ताले वाले, झम्मनलाल वार्ष्णेय तथा हरप्रसाद बाँसवाले मनोनीत किये गये । इस समिति में श्री झम्मनलाल वार्ष्णेय ने कोषाध्यक्ष के रूप में उत्तरदायित्व सम्भाला । इस नई उपसमिति ने मन्दिर स्थल के निरीक्षण एवं गम्भीर विचार विमर्श करने के उपरान्त यह निश्चय किया कि मन्दिर को मात्र पूजास्थल ही न बनाकर धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक गोष्ठियों, सभाओं और समारोहों हेतु विशाल एवं भव्य स्थान बनाना अधिक लाभकारी होगा। अतः मन्दिर की भव्यता तथा विशालता की योजनानुसार शिवालय के पृष्ठभाग की भूमि को अग्रहीत कर लिया गया । मई 1974 की प्रथम तिथि का वह प्रभात मन्दिर-निर्माण के इतिहास में अविस्मरणीय रह्रेगा जिस दिन बारहसैनी कालेज सभा के युवामंत्री श्री देवकीनन्दन गुप्त ने समारोहपूर्वक उत्खनन कर मन्दिर-निर्माण-कार्य का श्रीगणेश किया और दो दिन उपरान्त ही योजनानुसार शुभ मुहूर्त में प्रतिष्ठित समाजसेवी सेठ दौलतराम कसेरे, कनवरीगंज अलीगढ़ के करकमलों द्वारा मन्दिर की नींव रखी गई। इस पुनीत अवसर पर प्रबन्धकों के अतिरिक्त जनपरिषद् के अनेक सदस्य, श्रीवार्ष्णेय महाविद्यालय के शिक्षक व छात्र एवं नगर के गणमान्य महानुभाव उपस्थित हुए। डॉ॰ पन्नालाल वार्ष्णेय एवं श्री देवकीनन्दन गुप्त ने उपस्थित महानुभावों से मुक्तहस्त दान देने की अपील की, जिसके परिणाम स्वरूप तत्काल लगभग इकत्तीस हजार रुपये का धन एकत्र हो गया। तभी से दानी महानुभावों द्वारा इस पुण्य कार्य के लिए निरन्तर दान देना प्रारम्भ कर दिया और मन्दिर का निर्माण-कार्य प्रगति पथ पर अग्रसर हुआ। इस मन्दिर के अभिरूप रेखाचित्र को तैयार करने में श्री रामबाबू वार्ष्णेय ‘विमल’ का सराहनीय योगदान रहा ।
 
मन्दिर की आधारशिला रखने के उपरान्त लगभग दो वर्षों तक निर्माण-कार्य निर्वाध गति से चलता रहा, किन्तु यकायक किन्हीं परिस्थितियोंवश श्री मदनलाल वार्ष्णेय ने संयोजकपद से त्यागपत्र दे दिया । संयोजक की अनुपस्थिति में निर्माण-कार्य में गति बनाये रखने हेतु कालिज सभा की कार्यसमिति ने आगामी चुनाव होने तक 31 मार्च, 1976 को एक निर्णय द्वारा श्री चन्द्र किशोर वार्ष्णेय, मानिक चौक अलीगढ़ को संयोजक पद के लिए नामित कर दिया ।
 
11 जुलाई, 1976 को कालिज सभा की नई कार्य-समिति का निर्वाचन हुआ और अपनी 8 अगस्त, 1976 को प्रथम बैठक में ही मन्दिर-निर्माण-कार्य का गुरुतरदायित्व श्री नरोत्तमदास वार्ष्णेय, सराय मानसिंह, अलीगढ़  के कुशल संयोजकत्व में एक उपसमिति को सौंप दिया गया। आपने अपने कार्यकाल में एक आकर्षक पुस्तिका का प्रकाशन किया, जिसमें मन्दिर निर्माण के उद्देश्य, परिचय एवं उस समय तक के दानदाताओं की विस्तृत सूची और आय-व्यय का लेखा प्रकाशित किया । सन् 1980 में कालिज सभा की कार्य समिति के निर्वाचन होने तक मन्दिर निर्माण पर (मन्दिर निर्माण सम्बन्धी अभिलेखों के आधार पर) तीन लाख रुपये से अधिक धन व्यय हो चुका था। उस समय तक श्री अक्रूर भवन (सत्संग भवन) का ढांचा तैयार हो चुका था तथा ऊपर की मंजिल के लिए आर. सी. सी. के कालम तैयार हो चुके थे एवं गर्भग्रह भी 10 फीट ऊँचाई तक निर्मित हो चुका था तथा गर्भगृह के पार्श्व में गैलरी का पटाव-कार्य प्रारम्भ हो गया था। यही नहीं गर्भगृह तक पहुँचने के लिए पृष्ठभाग में एक पक्का जीना भी निर्मित हो चुका था। यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि इस समय तक धन संग्रह करने की कोई निश्चित कार्य योजना नहीं बन सकी थी, जिसके अभाव में निर्माण-कार्य की गति शनैः शनैः मन्द पड़ती गई, अन्ततः निर्माण-कार्य बन्द सा ही हो गया। श्री नरोत्तमदास वार्ष्णेय भी अन्य व्यस्तताओं के कारण संयोजक पद के दायित्वों से विरक्त से हो गये, किन्तु कालिज-सभा के आगामी चुनाव होने तक पद पर बन रहे। सन् 1980 में नई कार्य-समिति का निर्वाचन हुआ और मन्दिर निर्माण-कार्य को आगे बढ़ाने हेतु मा॰ महेशचन्द्र वार्ष्णेय, मानिक चौक, अलीगढ़ को मन्दिर-निर्माण उपसमिति का संयोजक नामित किया। इनके कार्यकाल में धन की आगत नगण्य होने के कारण निर्माण-कार्य की यथास्थिति बनी रही। परिस्थितियाँ अनुकूल न होने के कारण एक वर्ष पूरा होने से पूर्व ही मास्टर साहब ने संयोजक पद से त्यागपत्र दे दिया। किन्तु जहाँ चाह है, वहाँ राह भी है। जनकल्याण के कार्यों के सम्पादन में ईश्वर सदैव सहायक होते हैं। महाराज अक्रूर जी की कृपा से कालिज सभा की कार्य-समिति मन्दिर-निर्माण के संकल्प को पूरा करने हेतु पुनः उद्यत हुई। गहन मंत्रणा हुई। विस्तृत विचार विनमय के उपरान्त निर्माण-कार्य को गति प्रदान करने के लिए नाम उभर कर आया मास्टर श्यामकृष्ण वार्ष्णेय का, जिनमें प्रतिभा थी और कुछ कर दिखाने का अप्रतिम उत्साह। मास्टरजी ने सन् 1981 से संयोजक पद का दायित्व ग्रहण करने के पश्चात् धन-संग्रह करने की एक निश्चित, सर्वग्राह्य कार्य योजना तैयार कर कार्यवाही प्रारम्भ की । सर्वप्रथम श्री अक्रूर भवन को, जो उस समय तक बेहाल पड़ा था, इस योग्य बनाने का प्रयास किया कि इसका सदुपयोग मांगलिक कार्यों एवं अन्य सामाजिक व धार्मिक कार्यों हेतु हो सके और अधिक से अधिक लोग इससे जुड़ सकें। धन की सुनिश्चित आगत हेतु इन्होंने वार्ष्णेय समाज के समस्त परिवारों से उनके सदस्यों की संख्यानुसार चन्दा लेने एवं साथ ही साथ मासिक दान एकत्रित करने की कार्य योजना प्रारम्भ की। परिवार के सदस्यों की संख्यानुसार चन्दा करने की योजना कार्यकर्त्ताओं के अभाव में सफल नहीं हो सकी, किन्तु मासिक दान की योजना को गति मिलने लगी 5। इस योजना को तैयार करने और संचालित करने में सहयोग करने का लेखक को भी अवसर मिला । यही नहीं इस योजना को विस्तार देने एवं सफल बनाने हेतु मास्टर जी के साथ लेखक ने अन्य कस्बों और नगरों का भी भ्रमण किया। मासिक दान की राशि प्रति सदस्य यद्यपि बहुत अधिक नहीं थी, फिर भी इस योजना के तहत काफी लोग मन्दिर-निर्माण-कार्य से जुड़ने लगे। इस प्रकार लगभग पाँच वर्षों के कालखण्ड में लगभग सवा दो लाख रुपये की धनराशि संग्रहीत हुई। इस समयावधि में गर्भग्रह को विशाल शिखरों तक पहुँचाया गया, गर्भग्रह के अग्रभाग को लगभग 30 फीट आगे तक पटवा दिया और विगत में बनी सीड़ियों को ऊपर छत तक पहुँचने के लिए तैयार करा दिया । महाविद्यालय परिसर से स्थानान्तरित शंकर भगवान की मूर्ति को विधि पूर्वक  श्री अक्रूर भवन में प्रतिष्ठापित करा दिया गया और पूजा अर्चना प्रारम्भ कर दी गई। मन्दिर-परिसर का विस्तार करने की दृष्टि से पार्श्व के दो शिक्षक आवासों को अधिग्रहीत किया गया। इसके फलस्वरूप मन्दिर-परिसर की उपयोगिता मांगलिक एवं अन्य सामाजिक और धार्मिक आयोजनों हेतु बढ़ गई। एक तरफ इस योजना से समाज के लोगों का जुड़ाव निर्माणाधीन मन्दिर से बढ़ रहा था, वहीं दूसरी तरफ समाज के ही कतिपय लोग मन्दिर-परिसर को सराय और होटल की संज्ञा देकर व्यंग वाण चला रहे थे। इस प्रकार अकारण ही समाज के कुछ व्यक्तियों द्वारा ऐसी तीखी आलोचना किये जाने से व्यथित होकर मा॰ श्यामकृष्ण वार्ष्णेय ने सन् 1985 के अन्त में संयोजक पद से त्यागपत्र दे दिया, किन्तु कालिज-सभा के तत्कालीन मंत्री नवरत्न कुमार एड॰ ने त्यागपत्र स्वीकार नहीं किया और मास्टरजी से अपने पद पर कार्य करते रहने हेतु अनुरोध किया।
 
इसी बीच मन्दिर-निर्माण के आधार स्तम्भ, वार्ष्णेय समाज के चमकते सितारे और बारहसैनी कालिज सभा के तत्कालीन अध्यक्ष श्री देवकीनन्दन गुप्त का हृदयाघात के कारण असामयिक निधन हो गया। वार्ष्णेय समाज ही नहीं सम्पूर्ण अलीगढ़ नगर में शोक की लहर दौड़ गई। सम्पूर्ण समाज जैसे लुट चुका था। मास्टरजी का उनसे विशेष लगाव था और मन्दिर-निर्माण-कार्य में अपना संबल मानते थे। श्री गुप्त के आकस्मिक निधन से वह अपने को असहाय समझने लगे और मन्दिर-निर्माण-कार्य में अपने को असमर्थ समझने लगे और मन्दिर-निर्माण-कार्य में अपने को असमर्थ समझ उससे प्रथक हो गये। मास्टरजी की मनःस्थिति देख सभा के तत्कालीन मंत्री श्री नवरत्न कुमार एड॰ को उनका त्यागपत्र स्वीकार करना पड़ा। उनके संयोजक पद से हटते ही धन-संग्रह करने की मासिक-दान-योजना ठप हो गई। वस्तुतः धन की आगत बन्द सी ही हो गई और निर्माण-कार्य भी स्थगित हो गया। इस स्थिति से उबरने हेतु कालिज सभा की कार्य-समिति ने अधिग्रहीत शिक्षक-आवासों को तुड़वाकर जी.टी.रोड के किनारे मन्दिर के अग्रभाग में नौ दुकानों का निर्माण कराया, जिससे मन्दिर-निर्माण हेतु धन की आगत में आई रुकावट कुछ सीमा तक समाप्त हो गई। इन्हीं दुकानों के पीछे और श्री अक्रूर भवन के अग्रभाग में पूर्व और पश्चिम दिशाओं में छः कमरों का निर्माण भी प्रारम्भ किया, जो धन की समुचित व्यवस्था न होने के कारण अधूरे ही बने रह गये। मन्दिर-निर्माण-कार्य तो बन्द ही हो गया और मन्दिर-परिसर का जनोपयोगी स्वरूप भी समाप्त हो गया। यथार्थ में निर्माणाधीन मन्दिर का सम्पूर्ण भवन बन्दरों और चमगादड़ों का आवास स्थल बन गया था।
 
कई वर्षों तक निर्माण-कार्य बन्द रहने के कारण अलीगढ़ नगर के विभिन्न वर्गों में मन्दिर-निर्माण के सम्बन्ध में भाँति-भाँति की चर्चाओं का बाजार गर्म होने लगा। सम्पूर्ण वार्ष्णेय समाज पर उँगली उठाई जाने लगी। इन अवांछित टीका टिप्पणियों से आहत कालिज सभा की कार्य-समिति के पदाधिकारियों और सदस्यों को झंकझोर दिया। उन्होंने मन्दिर- निर्माण-कार्य पुनः प्रारम्भ करने के उद्देश्य से कार्य-समिति की बैठक आहूत की जिसमें अध्यक्ष श्री अयोध्या प्रसाद बैंकर एवं मंत्री श्री नवरत्न कुमार एड॰ के अतिरिक्त सात सदस्य उपस्थित हुए। उन सभी ने गहन विचार विनिमय के उपरान्त श्री किशोरीलाल सर्राफ को संयोजक एवं मा॰ श्यामकृष्ण वार्ष्णेय को सह-संयोजक नामित कर उपसमिति का गठन कर दिया और उन्हें यह अधिकार भी दे दिया कि मन्दिर-निर्माणार्थ समाज के अन्य क्रियाशील व्यक्तियों को सहयोग हेतु अपने साथ समिति में शामिल कर सकते हैं।
 
चूँकि लगातार कई वर्षों तक मन्दिर-निर्माण-कार्य बन्द पड़ा रहा था और नगर में भाँति-भाँति की चर्चाएँ  प्रारम्भ हो चुकीं थीं। इन अप्रत्याशित चर्चाओं ने समाज के कुछ क्रियाशील एवं संवेदनशील व्यक्तियों को झंकझोर दिया। वे कुछ करने को उद्वेलित हो उठे और सन् 1994 में इन्हीं व्यक्तियों ने सक्रिय होकर मन्दिर-निर्माण का बीड़ा उठाया। तत्कालीन मन्दिर समिति के संयोजक, सह-संयोजक तथा सदस्यों से गहनमंत्रणा की और निर्माण-कार्य में आने वाले अवरोधों को दूर करने का प्रयास किया। जिन महानुभावों ने कई वर्षों से रुके हुए निर्माण-कार्य को पुनः प्रारम्भ कराने में सक्रिय भूमिका निभाई उनमें प्रमुख हैं- सर्वश्री हरीशंकर सर्राफ, राजाराम मित्र, पुखराज सर्राफ, यशपाल भैयाजी, राजेन्द्र कुमार वार्ष्णेय पीतल वाले, झम्मनलाल वार्ष्णेय, अयोध्या प्रसाद बैंकर, एल.डी. वार्ष्णेय, इं॰ राघवेन्द्र कुमार वार्ष्णेय, हरीशंकर वार्ष्णेय, प्रभाकर इण्डस्ट्रीज, आशुतोष वार्ष्णेय, डॉ॰ विजय पाल, डॉ॰ चक्खनलाल वार्ष्णेय, मंगलसैन वार्ष्णेय, महावीर प्रसाद लोहेवाले, राधेश्याम गुप्ता स्क्रैप वाले, राजबहादुर पहलवान, विशन चन्द्र ठेकेदार, श्रीपाल ठेकेदार, भगवानदास नेताजी, हीरालाल सर्राफ, नवीनचन्द्र पीतल वाले, सुरेश चन्द्र दिल्ली वाले, प्रेमपाल ताले वाले, अशर्फीलाल कैप वाले, शंकरलाल रद्दी वाले, किरोड़ीमल घी वाले एवं प्रेमचन्द्र सर्राफ इत्यादि । निर्माण-कार्य की रूप रेखा तैयार की गई और निर्माण-कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। सारा वार्ष्णेय समाज जैसे कारसेवा के लिए उमड़ पड़ा था। परात उठाने की होड़ सी लगी थी। कोई सोच भी नहीं सकता था कि जिस कार्य को कराने का उत्तरदायित्व सम्हालने को कोई तैयार नहीं होता था, वहाँ कार सेवा में जन-समूह उमड़ पड़ा था। मन्दिर-निर्माणार्थ जन-चेतना जाग्रत हो चुकी थी। सर्वश्री एल.डी.वार्ष्णेय, यशपाल भैयाजी एवं मंगलसैन वार्ष्णेय इत्यादि के प्रयासों से धन संग्रह होने लगा और निर्माण-कार्य द्रुतगति से आगे बढ़ने लगा । इस प्रकार प्रथमतल पर मन्दिर का मुख्य भवन एवं उस भवन तक पहुँचने के लिए दो विशाल जीने बनकर तैयार हो गये। श्री हरीशंकर सर्राफ का तो रोम-रोम मन्दिर के लिए समर्पित हो चुका था। एक तपस्वी की भाँति मन्दिर-निर्माण ही जैसे उनकी तपस्या थी और मन्दिर-परिसर उनका साधना स्थल । आज वह हमारे मध्य नहीं हैं, किन्तु उनकी लगन और निष्ठा हमें सदैव प्रेरित करती रहेगी।
 
वर्ष 1994 से 1996 तक का काल खण्ड मन्दिर-निर्माण के इतिहास में विशेष महत्व का रहा है। यह वह समय था जिसमें कई वर्षों के अन्तराल के पश्चात् मन्दिर-निर्माण-कार्य पुनः प्रारम्भ हुआ। लक्ष्मी के वरद् पुत्रों की सहृदता एवं दानशीलता के परिणामस्वरूप इस छोटे से काल खण्ड में सत्रह लाख रुपये से अधिक की विशाल धनराशि संग्रहीत हुई। मन्दिर के सौन्दर्यीकरण हेतु मकराना (राजस्थान) से दो ट्रक संगमरमरी पत्थर लाया गया। गर्भगृह में प्रतिष्ठापित होने वाली योगीराज श्रीकृष्ण, श्रीराम, जानकीजी, लक्ष्मणजी और हनुमानजी (श्रीराम दरबार) एवं श्री लक्ष्मी नारायण भगवान की आदमकद भव्य, धवल पाषाण प्रतिमाएँ बनाने का आर्डर जयपुर के ख्यातिप्राप्त मूर्तिकार को दिया गया । वर्ष 1996 का अवसान होते-होते सम्पूर्ण संग्रहीत धन चुकता हो चुका था । परिणामस्वरूप निर्माण-कार्य की गति शनैः शनैः मन्द होने लगी। कार्य करने का जो उत्साह वर्ष 1994 के प्रारम्भ में था वह वर्ष 1996 के अवसान होते-होते क्षीण सा होने लगा। प्रत्यक्षतः वर्ष 1996 के उत्तरार्ध में मन्दिर-निर्माण-कार्य में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। हाँ! एक महत्वपूर्ण कार्य मन्दिर-परिसर में प्रतिदिन सम्पादित होता रहा, वह था- प्रतिदिन सायंकाल ठण्डाई घोटने का और बाबा भोले नाथ को अर्पित करने का। यह एक ऐसा माध्यम था जिससे प्रतिदिन लोगों का मन्दिर-परिसर में आना जारी रहा। यद्यपि कुछ लोगों ने इसका दुष्प्रचार भी किया, किन्तु हमारा मानना है कि इस कार्यक्रम के चलते मन्दिर-निर्माण की चर्चाएँ जीवन्त बनी रहीं। लोग प्रतिदिन सायंकाल एकत्रित होते और मन्दिर-निर्माण के बारे में कुछ न कुछ विचार विनमय करते। इसी विचार मन्थन से फलित हुआ कि समाज के प्रमुख लोगों की एक बैठक मन्दिर-प्रांगण में आयोजित की जाय। संयोजक श्री किशोरी लाल सर्राफ ने 6 जनवरी, 1997 को एक वृहत् बैठक आयोजित की। श्री राधेश्याम सर्राफ की अध्यक्षता में समाज के विशिष्ठ व्यक्तियों की उस बैठक में मन्दिर-निर्माण को पुनः गति प्रदान करने हेतु गहन विचार विमर्श हुआ। अन्ततः यह निष्कर्ष निकल कर आया कि निर्माण-कार्य को निर्वाध गति से यदि जारी रखना है तो कार्य करने और धन-संग्रह करने की एक सुनियोजित रूपरेखा अपनानी होगी । 
 
मा॰ श्यामकृष्ण वार्ष्णेय ने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उनके द्वारा पूर्व में अपनाई गई कार्य-योजना पर प्रकाश डाला। उन्होंने मन्दिर-परिसर में मांगलिक कार्य पुनः प्रारम्भ कराने की अपील की एवं मासिक दान योजना को पुनः प्रारम्भ कराने पर बल दिया। लोगों की इस आशंका पर कि घर-घर जाकर हर महीने कौन धन एकत्रित करेगा, तो मा॰ श्यामकृष्ण जी ने विश्वास जताया कि इस कार्य को वह स्वयं अंजाम देंगे। उनके इस विश्वास को देखते हुए उक्त दोनों योजनाओं को सर्वसम्मति से अनुमोदित कर मास्टरजी से आग्रह किया गया कि इस कार्य-योजना को क्रियान्वित करें और निर्माण-कार्य को गति प्रदान करें।
 
मास्टर श्यामकृष्ण वार्ष्णेय के नेतृत्व में निर्माण-कार्य को गति प्रदान करने हेतु मासिक दान योजना को विधिवत प्रारम्भ करने हेतु मास्टरजी के साथ तीन कार्यकर्ता सर्वश्री हरीशंकर सर्राफ, सुरेश चन्द्र दिल्ली वाले एवं डॉ॰ चक्खन लाल वार्ष्णेय सदस्यता अभियान पर निकले। तीन महानुभावों ने मासिकदान योजना में अपना सहयोग प्रदान कर योजना का श्रीगणेश किया। बढ़ते-बढ़ते यह संख्या अब चार सौ को पार कर चुकी है और यह क्रम जारी है। इस योजना में एक सौ रुपये से लेकर ग्यारह सौ रुपये तक के दान दाता सम्मिलित हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि श्री सुरेश चन्द्र गुप्ता (गुप्ता फोटो सर्विस) वर्ष 1994 से ही एक हजार रुपये मासिक मन्दिर-निर्माण हेतु प्रदान करते आ रहे थे। प्रारम्भ की गई मासिक दान योजना ने वस्तुतः मन्दिर-निर्माण के प्रति जन-भावना जाग्रत करने में उत्प्रेरक का कार्य किया। इस योजना से प्रभावित होकर एवं मन्दिर-निर्माण की प्रगति देखकर मांगलिकदान एवं संकल्पितदान देने वाले श्रद्धालुओं व दानदाताओं ने भी दान देने में रुचि लेनी प्रारम्भ कर दी और वह अब तक जारी है। कदाचित यह दानदाताओं की उदारता ही है कि मन्दिर-निर्माण पर अब तक एक करोड़ रुपये से अधिक धन व्यय हो चुका है और अब तक मन्दिर-निर्माण का अधिकाँश कार्य पूर्ण हो चुका है और जो रह गया है उसका निर्माण जारी है। किन्तु इस विशाल मन्दिर की भव्यता अक्षुण्य रखने हेतु धन की सदैव आवश्यकता रहेगी, जिसकी आपूर्ति समाज के सहृदय दानदाता अपने दान से सदैव करते रहेंगे।
 
आय-व्यय में पारदर्शिता बनाए रखने हेतु अंकेक्षित लेखा एवं मासिक दान का सम्पूर्ण विवरण सम्पुष्टि हेतु सभी सदस्यों के पास नियमित पहुँचाया जाता है। मा॰ श्यामकृष्णजी के साथ धन-संग्रह कराने में सहयोगी कार्यकर्त्ता जो सदैव तत्पर रहे हैं उनमें प्रमुख हैं- सर्वश्री राजाराम मित्र, पुखराज सर्राफ, राघेश्याम गुप्ता स्क्रैप वाले, डॉ॰ चक्खन लाल वार्ष्णेय, महावीर प्रसाद लोहे वाले, सुरेश चन्द्र दिल्ली वाले, श्यामाचरन लाल, रामकुमार तेल वाले, कृष्ण स्वरूप सेवक, हीरालाल मुंशीजी, किशोरीलाल सर्राफ, झम्मन लाल वार्ष्णेय, एल.डी. वार्ष्णेय, मंगलसैन वार्ष्णेय, यशपाल भैयाजी, हीरालाल सर्राफ, सुरेश चन्द्र गुप्ता (गुप्ता फोटो सर्विस), गोपाल भैया, श्रीकृष्ण दिल्ली वाले, कृष्णमुरारी गुप्ता, राघेश्याम गुप्ता ताले वाले (वर्तमान में निर्माण-कार्य का आय-व्यय लेखा तैयार करते हैं और कैशियर हैं) एवं ओउम प्रकाश वार्ष्णेय एड॰ इत्यादि । 
 
इनके अतिरिक्त मासिकदान एकत्रित करने में कुछ सहयोगी और जुड़े हैं, जिनमें प्रमुख हैं- सर्व श्री जयप्रकाश ‘आलू वाले’, धर्मेन्द्र चन्द्रा, स्वतंत्र कुमार ‘सत्तोजी’, दिनेश कुमार वार्ष्णेय ‘शांति ईंट उद्योग’, विष्णु शेखर, महेश चन्द्र टिम्बर वाले एवं दुर्गा शरन वार्ष्णेय टाफी वाले । 
 
इनमें श्री राधेश्याम गुप्ता स्क्रैप वालों की कार्य करने की शैली विलक्षण है। उनके सहयोग से जहाँ कई मासिक दानदाता बने हैं वहीं प्रायोजित निर्माण हेतु कई दानदाताओं को प्रेरित किया है। सम्प्रति श्री गुप्ता मन्दिर व्यवस्थापक के रूप में नित्य प्रति होने वाली पूजा अर्चना एवं वर्षभर होने वाले धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आयोजनों की समुचित व्यवस्था पूर्ण निष्ठा एवं लगन से करते हैं। 
 
इन आयोजनों को सम्पादित करने में श्रद्धालु दानदाताओं सर्वश्री रमेश चन्द्र गुप्ता (मैडीको), हरीशंकर वार्ष्णेय (प्रभाकर इण्डस्ट्रीज), इं॰ राघवेन्द्र कुमार वार्ष्णेय, एल. डी. वार्ष्णेय, डॉ॰ चन्द्र शेखर, आशुतोष वार्ष्णेय (पूर्व मेयर), राजेन्द्र कुमार वार्ष्णेय पीतल वाले, सूरज प्रकाश सर्राफ, नवल किशोर ब्रजभूषण ‘बिन्दु’, इन्द्र कुमार तेल वाले, सुरेश चन्द्र गुप्ता (गुप्ता फोटो सर्विस), राकेश गुप्ता ‘पेण्टस’, अजय नन्दन, प्रवीण कुमार ताले वाले, कन्हैया लाल, सुरेश चन्द्र ठेकेदार, संजीव कुमार (पम्मी लाला), सुशील कुमार (आर. सी. लौक), राजेन्द्र कुमार वार्ष्णेय (आर.आर.स्टील) एवं ज्ञान प्रकाश वार्ष्णेय (पी.बी.दास) के साथ-साथ सर्वश्री कृष्ण स्वरूप सेवक कोठारी, महावीर प्रसाद लोहे वाले कैशियर एवं अनिल बजाज प्रेस प्रवक्ता के रूप में सहयोग प्रदान करते हैं। श्री विग्रहों के चित्ताकर्षक, भव्य एवं अलौकिक श्रंगार के शिल्पी हैं, कला पारखी सर्वश्री कन्हैयालाल केसर वाले, प्रदीप पेन्टर, श्रीकृष्ण दिल्ली वाले विनोद कुमार एवं राम सरन वर्तन वाले आदि। 
 
इनकी कल्पनाशीलता एवं कलात्मकता से श्रंगारित श्रीविग्रह श्रद्धालुओं एवं भक्तों में आस्था एवं विश्वास की श्रीवृद्धि करते हैं।
 
योजनानुसार सर्वप्रथम मन्दिर-प्रांगण को जनोपयोगी बनाने की दृष्टि से श्री अक्रूर भवन के पृष्ट भाग में पड़े मलवे से उपयोगी सामिग्री निकाली गई और स्थान समतल कराकर उसी मलवे से पाँच कमरों की नींव भरवा दी। पच्चीस हजार रुपये दान स्वरूप देकर कमरा निर्माण का श्रीगणेश किया प्रमुख समाजसेवी श्री एल॰ डी॰ वार्ष्णेय ने। यह कार्य ऐसे शुभ मुहूर्त में सम्पन्न हुआ कि दानदाताओं की सहायता से अब तक 30 कमरों का निर्माण हो चुका है। जिसका विस्तृत विवरण आगे दिया गया है। इस निर्माण-कार्य से प्रभावित होकर सामाजिक दर्पण संस्था के संरक्षक मंडल ने पिचानवै हजार रुपयों का योगदान देकर गर्भगृह के पृष्टभाग में तीसरी मंजिल पर एक हॉल बनाने में सहयोग प्रदान किया। कमरों के निर्माण के साथ-साथ आठ स्नानगृह, दस शौचालय एवं पाँच पानी की टंकियों की भी व्यवस्था कर दी एवं पानी की निरन्तर आपूर्ति के लिए दो सबमर्सीबल पम्प भी लगाये गये हैं। इन जनोपयोगी सुविधाओं की व्यवस्था हो जाने की से मन्दिर-परिसर की उपयोगिता द्विगुणित हो गई। जिसके फलस्वरूप देव प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा होने से पूर्व तक सत्तर शादियाँ और मांगलिक कार्य हो चुके थे, जिनसे तीन लाख पचास हजार रुपयों से अधिक की धनराशि मन्दिर को प्राप्त हुई। इस प्रकार मन्दिर-निर्माण-कार्य में गति आने लगी। निर्माण-कार्यों से प्रभावित होकर प्रायोजित निर्माणों हेतु धन देने वाले महानुभावों की संख्या में निरन्तर अभिवृद्धि होने लगी और इस कारण निर्माण-कार्य भी द्रुत गति से आगे बढ़ने लगा। मा॰ श्यामकृष्ण वार्ष्णेय एवं श्री पुखराज सर्राफ की देखरेख में भवन के फर्शों एवं दीवारों पर संगमरमरी पत्थर लगना प्रारम्भ हो गया। समय-समय पर डॉ॰ विजय पाल, श्री एल. डी. वार्ष्णेय, श्री यशपाल भैयाजी, श्री राजेन्द्र कुमार वार्ष्णेय पीतल वाले, श्री शिवशंकर वार्ष्णेय ‘लिबर्टी’, श्री राजाराम मित्र, डॉ॰ चक्खनलाल वार्ष्णेय, श्री राघेश्याम गुप्ता स्क्रैप वाले एवं श्री कृष्ण स्वरूप सेवक के सुझाव निर्माण में संशोधन एवं परिवर्द्धन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। तकनीकी दृष्टि से निर्माण-कार्य उच्चकोटि का हो सके इसके लिए विशेषज्ञ इंजीनियरों से सलाह ली जाती रही है। प्रारम्भ में इं॰ जे. एस. यादव, इं॰ आर. एस. गुप्ता और बाद में इं॰ प्रदीप वार्ष्णेय, इं॰ संजय वार्ष्णेय एवं इं॰ मनीष वार्ष्णेय जयपुर ने अपनी महत्वपूर्ण एवं प्रभावी सेवाएँ देकर मन्दिर को आकर्षक बनाने में अविस्मरणीय योगदान दिया है । जब भी आवश्यकता होती है तो इं॰ प्रदीप वार्ष्णेय की सेवाएँ मन्दिर को सदैव उपलब्ध रहतीं हैं।
 
मन्दिर का भव्य स्वरूप-एक परिचयः
 
श्री अक्रूर भवन में लोहे की पाइप से बने विशाल जंगले, मुख्य भवन में लगी पत्थर की जालियाँ और रेलिंग दर्शकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इस भवन के अग्रभाग में श्वेत संगमरमरी पत्थर से मण्डित विशाल खम्भे, श्वेत पत्थर से बनी विशाल जीने की सीड़ियाँ एवं उनपर बनीं दो गुमटियों की सुन्दरता देखते ही बनती है तथा जीनों पर लगीं दूधिया रंग प्रकीर्ण करतीं रेलिंग इस सुुन्दरता को और अधिक बढ़ा देतीं हैं। गर्भगृह के अग्रभाग की दीवारों पर लगे ग्रेनाइट पत्थर एवं पी.ओ.पी. से सुसज्जित छत और बिजली के झाड़ फानूस मुख्य भवन की सुन्दरता में चारचाँद लगा रहे हैं। गर्भगृह में बने देव प्रतिमाओं के सिहासन एवं 12 देवी-देवताओं के सिंहासन वास्तुकला की आकर्षक कृतियाँ हैं। गर्भगृह के पटों को चाँदी से मढ़वाने का पूर्ण हो चुका है। इन पटों को 100 किलो चाँदी पर आकर्षक आकृतियाँ उभार कर मढ़ गया है। इनके कला पूर्ण सौन्दर्य से गर्भगृह की भव्यता द्विगुणित हो गई है। मन्दिर के श्वेत संगमरमरी पत्थरों से मण्डित 100 फीट ऊँचे शिखर और उन पर लगे स्वर्ण कलशों से उत्कीर्ण होती अलौकिक आभा सम्पूर्ण ब्रजमण्डल सहित भारत के कौने-कौने से दर्शनार्थियों को भगवान वार्ष्णेय एवं सभी देवी-देवताओं के दिव्य दर्शन लाभ हेतु आकर्षित करती रहेगी। श्री अक्रूर भवन के पार्श्व में बना शिव मन्दिर भक्तों की पूजा अर्चना का प्रमुख केन्द्र बन चुका है। मन्दिर के अग्रभाग में शीर्ष पर श्री हनुमानजी और श्री गरुणजी की आदमकद श्वेत संगमरमर की चित्ताकर्षक प्रतिमाएँ श्रद्धालुओं में सेवा, समर्पण और भक्तिभाव जाग्रत करने को प्रेरित करती हैं। इन दोनों भव्य प्रतिमाओं के मध्य में उस रथ की सुन्दरता देखते ही बनती है जिसमें श्री अक्रूर जी महाराज श्री बलराम और श्रीकृष्ण को मथुरा राज्य में कंस के आतंक से पीड़ित जनता को मुक्ति दिलाने गोकुल से मथुरा ले जा रहे हैं। श्री अक्रूर भवन के अग्रभाग के आंगन में कलात्मक फब्बारा दर्शनार्थियों के आकर्षण का केन्द्र है। दूधिया संगमरमर के पत्थरों से मण्डित मन्दिर का सम्पूर्ण आंगन और वास्तुकला का अनूठा प्रदर्शन करता मन्दिर का मुख्य द्वार दर्शनार्थियों को स्वतः आकर्षित करने में सक्षम है। 
 
स्वर्ग में विराजमान देवतुल्य हमारे पूर्वज समाज की इस भव्य कृति को देख फूले नहीं समाएँगे। वस्तुतः यह मन्दिर वार्ष्णेय समाज के लिए ही नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए एक तीर्थस्थल होगा। इसकी कीर्ति पताका अनन्त काल तक फहराती रहेगी और वार्ष्णेय समाज की एकजुटता एवं संकल्प साधना का सर्वत्र यशोगान होगा।
 
- डॉ॰ चक्खनलाल वार्ष्णेय, हरिगढ़