• +919358251363
  • This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.

श्री अक्रूरजी महाराज


वृष्णि कुल शिरोमणि श्री अक्रूर जी

श्री अक्रूर जी के पिता श्वफल्क के व्यापारिक सम्बन्ध दूर-दूर तक फैले थे । वे कुशल अर्थ प्रबन्धक थे । राज्य कर्म (क्षत्रिय कर्म) में उनकी अधिक रुचि न थी । काशी की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ बनाने में सहायता करने के कारण, वहॉं के राजा द्वारा अपनी पुत्री गान्दिनी का विवाह उनसे कर दिया गया । अक्रूर जी अपनी ननिहाल (काशी) जो सदैव से अध्ययन-अध्यापन अथवा ज्ञान का केन्द्र रही है, के प्रभाव के कारण स्वभाव से विद्वान एवं संत प्रवृत्ति के थे । साथ ही पिता श्वफल्क  के व्यापारिक सम्बन्ध व कुशलता भी उनको  विरासत में मिली थी । क्षत्रिय वर्णीय पितृ कुल में तो वे जन्मे ही थे । कंस  जैसा प्रभावशाली परन्तु क्रूर शासक भी श्री अक्रूर जी के प्रभाव को स्वीकार करता था । जब कंस किसी भी प्रकार से श्रीकृष्ण को मथुरा न बुला सका तो अक्रूर जी के द्वारा उसने श्रीकृष्ण को मथुरा बुलाया था । कंस वध के पश्चात् श्रीकृष्ण अक्रूर जी के घर गये व उन्हें गुरु व चाचा कहा (मद भागवत स्क-10 -अ0-48-श्लो0-29)15 भगवान श्रीकृष्ण ने ही महाभारत युद्ध से पहिले, श्री अक्रूर जी को समस्त विवरण लेने हस्तिनापुर भेजा। (मदभागवत- स्क010- अ049,श्लो07)14 दान के लिये अक्रूरजी का यश बहुत बड़ा था । श्रीकृष्ण और कंस ने बारम्बार उन्हें दानपते (महादानी) कहकर सम्बोधित किया है । (मदभागवत- स्क010अ057,श्लो0-36 एवं अ036,श्लो028)।16-17 भगवान श्रीकृष्ण द्वारा द्वारिका बसाने के पश्चात् वहॉं की अर्थव्यवस्था सम्भालने का दायित्व श्री अक्रूर जी को देना और स्यमन्तक मणि (समस्त धन-धान्य देने वाली) सौंपना (मद्भागवत-स्क010अ057, श्लो034 से 41) उनके प्रभाव को दर्शाता है ।

15.त्वं नो गुरूः पितृव्यष्च ष्लाध्यो बन्धुष्च नित्यदा ।
    वंय तु रक्ष्याः पोश्याष्च अनुकम्पयाः प्रजाहि वः ।।29।।
    (श्रीमद्भागवत स्क10-अ०48)

16.भो भो दानपते मध्यं क्रियतां मैत्रामादृतः।
    नान्यस्तक्तो हिततमो विद्यते भोजवृश्णिशु ।।28।।
    (श्रीमद्भागवत-स्क10-अ०36)

17.ननु दानपते न्यस्तस्त्वय्यास्ते षतधन्वना ।
    स्यमन्तकोमणिः श्रीमान विदितः पूर्वमेवनः ।।36।।
    (श्रीमद्भागवत-स्क०10-अ०57)

श्री अक्रूर जी जब श्रीकृष्ण एवं बलराम को मथुरा ला रहे थे, तो उन्हें उनकी सुकुमार, सुकोमल, सुशील एवं सुन्दर छवि के कारण संदेह होने लगा । तब श्री अक्रूर जी को, भगवान श्री कृष्ण ने सर्वप्रथम विष्णुरूप दर्शन दिये थे । (मद्भागवत स्क010अ039श्लो040-55)18

अक्रूर ग्राम, अक्रूर घाट एवं श्री अक्रूर जी मन्दिर

मथुरा से पूर्व, मार्ग में, यमुना तट पर सूर्य ग्रहण के कारण, सन्ध्या स्नान के समय भगवान श्री कृष्ण ने जिस स्थान पर श्री अक्रूर जी को दो भुजाओं युक्त कृष्ण -बलराम रूप और सभी अवतारों द्वारा सेवा किये जाते, श्री शेष जी पर विराजमान चतुर्भुज अनन्त स्वरूप के दर्शन दिये, वह स्थान अक्रूर घाट (अनन्त तीर्थ) कहलाया । श्री गर्ग संहिता -मथुरा खण्ड 5 अ0 में भी इस तीर्थ का उल्लेख है । बाराह पुराण 19 में लिखा है कि राहू से ग्रसित सूर्यग्रहण  में अक्रूर घाट पर स्नान करने से राजसूय अश्वमेघ यज्ञ करने जैसा फल प्राप्त होता है ।

यह फल ठीक उसी प्रकार है, जैसा कि कुरू-क्षेत्र सरोवर में सूर्य ग्रहण के पश्चात स्नान करने से प्राप्त होता है । महाभारत युद्व समाप्ति के पश्चात, अर्जुन के आग्रह पर, भगवान श्री कृष्ण ने अपने आदि-स्वरूप के साक्षात दर्शन एक बार पुनः इस सरोवर में कराये थे ।
भक्ति रत्नाकर शौर्य पुराण (वचन-पंचम)20 के अनुसार जो नर -नारी, पूर्णिमा को, विशेषकर कार्तिक पूर्णिमा (इसी दिन चैतन्य महाप्रभु अक्रूर गॉंव पधारे )को अक्रूर घाट पर स्नान करते हैं, वह संसार के आवागमन से मुक्त हो जाता है ।

19.तीर्थराज हिचक्रूरंगूह्यानां गूह्यमुत्तमम ।
    तत्फलं समवाप्नोति सर्वतीर्थावगाहनात् ।।
    अक्रूरे च पुनः स्नात्वा राहूगृस्ते दिवाकरे ।
    राजसूयाष्वमेधाभ्यं फलमाप्नोति मानवः ।।
    (वाराह पुराण)

20.अनन्तरमति श्रेश्ठं सर्वपाप विनाषनं ।
    अक्रूरतीर्थमत्यर्थमस्ति प्रियतरं हरे: ।।
    पूर्णिमायान्तु यः स्नायात तत्रतीर्थवरे नरः ।
    स मुक्तएव संसारात् कार्तिकयान्तु विषेशतः ।।
    (भक्तिरत्नाकर सौर्यपुराण-वचन पंचम)

अक्रूरघाट के समीप ही अक्रूर गॉंव आज भी वहीं बसा है। यह द्वापर युग से विद्यमान है ।  श्री अक्रूर जी बारह भाई थे । कालान्तर में बारह श्रेणियों में विभक्त होकर उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के के प्रपोैत्र , श्री अनिरूद्ध के पुत्र बज्र (मद्भागवत स्कन्ध 11 -अ031,श्लो025)21 के नेतृत्व में जरासंध एवं यदुवंश के महाविनाश के कारण उजड़े मथुरा (मदभागवत् महात्म्य-अ01-श्लो015)22 को , पुनः बसाने का कार्य किया । क्षत्रिय कर्म से अधिक वे वैश्य कर्म में लिप्त रहे । पुनः चौथी शताब्दी में (वि0सं0 450 अर्थात् 393 ई0 में) यहीं पर श्री कृष्ण बलराम मन्दिर स्थापित किया गया था । जो आज भी खण्डहर रूप में मौजूद है। इसी के समीप अत्यन्त प्राचीन सरोवर के अवशेष मौजूद हैं। पास ही स्थापित श्री तालेश्वर महादेव, भगवान श्री कृष्ण व बलराम की मूर्तियॉं इसी सरोवर से प्रकट हुईं हैं।

चैतन्य चरितामृत -मध्य खण्ड18,परि062,पयार, के अनुसार 1515ई0 में महाप्रभु चैतन्य जी जब ब्रज क्षेत्र में भ्रमण के दौरान यहॉं आये तो, अक्रूर घाट पर डुबकी लगाने से उन्हें मूर्च्छा आ गई और वही भाव जागृत हो गया जो श्री अक्रूर जी को हुआ था। श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्यों द्वारा वृन्दावन का पुनः प्राकट्य करने 1534 ई0 में श्री मदन मोहन जी एवं श्री गोविन्द देव जी मन्दिर की स्थापना  हुई। वे अक्रूर गॉंव से ही भिक्षा लेते थे। मथुरा से वृन्दावन मार्ग में केवल यहीं बसावट थी।1693 में बारहसैनी अथवा वार्ष्णेय वैश्यों द्वारा नवीन मन्दिर में मूर्ति स्थापित की र्गईं। नवीन मन्दिर के पास ही प्राचीन दुर्लभ पंचमुखी हनुमान विराजमान हैं। उत्तर में घाटेश्वर महादेव जी, द्वापर युग से यहॉं विराजमान हैं।

श्री कृष्ण बलराम एवं श्री अक्रूर जी को समर्पित यह मन्दिर मथुरा वृन्दावन मार्ग पर साध्वी ऋतम्भरा जी के वात्सल्य ग्राम के सामने वाले मार्ग पर स्थित है। यह स्वाभाविक रूप से वार्ष्णेय समाज का एकमात्र वोधि-स्थल है। मथुरा-वृन्दावन की परिक्रमा बिना अक्रूरधाम दर्शन के अपूर्ण है । परिसर में स्थापित पंच मुखी हनुमान एवं कामधेनु के दर्शन विशेष लाभकारी हैं।

21.स्त्रीबालवृद्धानादाय हतषेशान धन´जयः ।
    इन्द्रप्रस्थं समावेष्य वजं्र तत्राभ्यशेचयत ।।25।।
    (श्रीमद्भागवत-स्क० ।।-अ०31)

22.माथुरे त्वभिशिक्तोऽपि स्थितोऽहं निर्जन वने ।
    क्क गता वै प्रजात्रत्या यत्र राज्यं प्ररोचते ।।15।।
    (श्रीमद्भागवत महात्म्य अ०1)

- श्री वृष्णि (वार्ष्णेय) कुल कथा, श्री अक्रूर स्मृति ग्रन्थ से